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________________ क्षुल्लकनिग्रंथ वस्तु ले सकता है। यदि वह नीति का भंग कर, दी हुई वस्तु को . वापिस ले ले तो वह भी अदत्त ही है। (९) ( यहाँ) बहुत से तो ऐसा ही मानते हैं कि पापकर्म त्याग किये। बिना भी आर्यधर्म को जानने मात्र से ही सर्व दुःखों से छूट सकते हैं (किन्तु यह ठीक नहीं है)। टिप्पणी-इस श्लोक में ज्ञान की अपेक्षा वर्तन (आचरण) की महत्ता बताई है। आचार न हो तो वाणी निरर्थक है। (१०) बंध और मोक्ष की बातें करने वाले, प्राचार का व्याख्यान देने पर भी स्वयं कुछ आचरण नहीं करते। वे मात्र वारशूरता (वाणी की बहादुरी) से ही अपनी आत्मा को आश्वासन देते हैं। (११) भिन्न २ तरह की (विभिन्न) भाषाए' (इस जीवको) शरणभूत नहीं होती है तो फिर कोरी विद्या का अधीश्वरपन (पंडितपन) क्या शरणभूत होगा? पाप कर्मों द्वारा पकड़े हुए मूर्ख कुछ न जानते हुए भी अपने को पंडित मानते हैं। (१२) जो कोई बाल (अज्ञानी) जीव; शरीर में, रंग में, सौंदर्य में सर्व प्रकार से (अर्थात् मन, वचन और काया से) आसक्त होते हैं वे सब दुःख भोगी होते हैं। (१३) वे इस अपार भवसागर में अनन्तकाल तक चक्कर लगाते रहेंगे, इस लिये मुनि का कर्तव्य है कि वह चारों तरफ देख भाल कर अप्रमत्त होकर विचरे।। (१४) बाह्य सुख को आगे करके (मुख्यता देकर) कभी किसी (वस्तु) की इच्छा न करे।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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