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उत्तराध्ययन सूत्र
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नुसार रूप धारण करने वाला) देव बन सकेगा । (मन में
ऐसा विचारना चाहिये)। (६) (और) स्थावर अथवा जंगम किसी भी प्रकार की मिल
लत (धन संपत्ति), धान्य या श्राभूपण, कमों के फल से पीड़ित मनुष्य को दुःखों के पंजों से नहीं छड़ा सकते
ऐसा तू समझ । (७) आत्मवत् सर्वत्र सब नीघों को मान कर (अर्थात् जिस
तरह हमें अपने प्राण प्यारे है उसी तरह दूसरों को भी अपने अपने प्राण प्यारे है ऐसा जान कर) भय और वैर से विरक्त आत्मा किसी भी प्राणी के प्राणों को न हते
(न मारे या न सतावे)। ‘टिप्पणी-मय क्रूरता से ही पैदा होता है। जो मनुष्य जितना ही
अधिक ऋर होगा उतना ही वह भयभीत भी रहेगा। बैर यह शत्रुता की भावना है। इन दोनों से यदि विरक्त हो जाय तो फिर सर्व जीवों के प्रति प्रेमामृत बहता रहे। अपनी टपमा से (जैसा अपने लिये वैसा ही दूसरों के लिये) प्रत्येक जीव के साथ वर्वे तो
प्राणीमान पर स्वाभाविक प्रेम पैदा हुए बिना न रहे। (८) मालिक की यात्रा बिना कोई भी वस्तु ग्रहण करना यह
नरक गति का कारण है ऐसा मान कर घास का तिनका भी दिये विना ग्रहण न करे। भिक्षु अपनी इन्द्रियों का निग्रह करके अपने पात्र में दाता द्वारा स्वेच्छापूर्वक दिये
गये भोजन को ही प्रहण करे। टिप्पणी--अदत्त की मनाई गृहस्य के लिये भी है किन्तु इन दोनों में
अन्तर केवल इतना ही है कि गृहस्य पुरुषार्थ करके अपने हक की