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________________ क्षुल्लक निर्मथ ४५ भगवान बोले: ( १ ) जितने अज्ञानी पुरुष हैं वे सब दुःख उत्पन्न करने वाले हैं ( दुःखी हैं, ) वे मूढ पुरुष इस अनन्त संसार में बहुत वार नष्ट ( दुःखी ) होते हैं । टिप्पणी--अज्ञान से मनुष्य स्वयं तो दुःखी होता ही है साथ ही अपने पड़ोसियों को भी वह दुःखदायी होता है । ( २ ) इसलिये ज्ञानी पुरुष, जन्म मरण को बढ़ाने वाले इस जाल को समझ कर ( छोड़कर) अपनी आत्मा द्वारा सत्य की खोज करे और सत्यशोधन का पहिला साधन मैत्रीभाव है, इसलिये प्राणीमात्र के साथ मित्रभाव स्थापे । ( ३ ) स्त्री, पुत्र, पौत्र, माता, पिता, भाई, पुत्र वधुएं आदि कोई भी अपने संचित कर्मों द्वारा पीड़ित तुम्हें लेशमात्र भी शरणभूत नहीं हो सकते । ( ४ ) सम्यक् दृष्टि पुरुष को अपनी (शुद्ध दृष्टि से ) बुद्धि से इस बात को विचारनी चाहिये और पूर्व परिचय ( पूर्व वासना जन्य उद्रेक) की इच्छा न करनी चाहिये । उसे आसक्ति और स्नेह को तो सर्वथा दूर ही कर देना चाहिये । टिप्पणी- सम्यक दर्शन अर्थात् आत्मभान । ज्यों ज्यों आसक्ति और राग दूर होते जाते हैं त्यों त्यों आत्मदर्शन होता जाता है । इस अवस्था में, पूर्व में भोगे हुए भोगोपभोगों का मन में स्मरण न आने दे और आत्म जागृति में निरन्तर सावधान रहे, ऐसा विधान किया गया है । (५) गाय, घोड़ा, आदि पशुधन को, मणिकुंडलों को, तथा दासी दास आदि सब को छोड़ कर तू कामरूपी (इच्छा
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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