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________________ असंस्कृत ३५ संसार स्वरूप को समभाव (सम दृष्टि) से समझ कर और आत्मरक्षक बनकर अप्रमत्त रूप से विचरे । टिप्पणी-काम सेवन करते हुए भी जागृति या निरासक्ति रखना सरल नहीं है। इसलिये प्रथम काम ( भोग विलासों) को ही छोड़ देना उत्तम है। (११) बारम्बार मोह को जीतते हुए और संयम में विचरते हुए त्यागी को विषय अनेक स्वरूप में स्पर्श करते हैं किन्तु भिक्ष उनके विषय में अपना मन कलुषित न करे। (ललचाने वाला) मन्द मन्द स्पर्श यद्यपि बहुत ही आकर्षक होता है किन्तु संयमी उसके प्रति अपने मन को आकृष्ट न होने देवे, क्रोध को दबावे, अभिमान को दूर करे, कपट (मायाचार ) का सेवन न करे और लोभ को छोड़ देवे। (१३) जो अपनी वाणी ( विद्वत्ता) से ही संस्कारी गिने जाने पर भी तुच्छ और पर-निंदक होते हैं तथा राग द्वेष से , जकड़े रहते हैं वे परतन्त्र और अधर्मी हैं ऐसा जान कर साधु उनसे अलग रह कर शरीर के अन्त तक ( मृत्यु. पर्यंत) सद्गुणों की ही आकांक्षा करे। ऐसा मैं कहता हूँ। -इस तरह "असंस्कृत" नामक चतुर्थ अध्य 3 - -
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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