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उत्तराध्ययन,सूत्र
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(असंख्य वा का लस्वा काल प्रमाण ) तक अप्रमत्त रह कर जो विचरता है वह मुनि उसी भव से शीघ्र ही
मुक्ति को प्राप्त करता है। टिप्पणी-पतन के दो कारण है, (१) स्वच्छन्द, और (२) प्रमाद ।
मुमुक्षु को चाहिये कि प्रारंभ से ही इन्हें दूरकरे तथा अर्पणता और
सावधानता को प्राप्त करे । (९) शाश्वत (नियति) वादी मतवादियों की यह मान्यता है
कि जो वस्तु पहिले न मिली हो पीछे से भी यह नहीं मिल सकती । ( यहां विवेक करना उचित है अन्यथा उस मनुष्य को) शरीर का विरह (जुदाई) होते समय अथवा आयुष्य के शिथिल होने पर उनकी भी मान्यता
बदल जाती है (और खेद करना पड़ता है)। टिप्पणी-जो हमने पहिले नहीं किया तो अब क्या कर सकेंगे ! ऐसा
समझ कर भी पुरुषार्थ न छोड़े । सब कालों में और सभी परिस्थिति में पुस्पार्थ तो करते ही रहना चाहिये। यहां परंपरा के अनुसार ऐसा भी भर्य होता है कि शाश्वतवादी (निश्चय से कह सकें ऐसे ज्ञानी जन) निकालदर्शी होने से, अमी ऐसा ही होगा, फिर ऐसा नहीं होगा, अथवा अभी वह जीव प्राप्त कर सकेगा, बाद में नहीं आदि, आदि निश्चय पूर्वक मानते हैं वे तो पीछे भी पुरुषार्थ कर सकते हैं परन्तु वह उपमा तो उन्हीं महापुरुषों को लागू पढ़ती है, औरों को नहीं । जो उनकी तरह दूसरा साधारण जीवात्मा भी वैसाही करने लगेतो अन्त
समय में टसको पटताना ही पड़ेगा। (१०) ऐसा शीघ्र विवेक (त्याग) करने की शक्ति किसी में
नहीं है इसलिये महर्पि, कामों (मोगों) को छोड़ कर.