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________________ ३२ उत्तराध्ययन सूत्र टूटने पर फिर जोड़ी जा सकती है, किन्तु यह जीवन दोरी (जीवन रूपी रस्सी) एक वार टूट कर फिर कभी नहीं जुढ़ती । (२) कुबुद्धि वशात् ( अज्ञान वशात् ) पाप कृत्य करके जो मनुष्य धन प्राप्त करते हैं वे कर्म वन्ध में बन्धे हुए और वैर ( की सांकलों में) फंसे हुए (मृत्यु समय) धन को यहीं छोड़ कर (परलोक में ) नरक गति में जाते हैं। (३) सेंध लगाते हुए पकड़ा गया चोर जिस तरह अपने कर्म से काटा जाता (पीड़ित होता) है उसी तरह ये जीव इसलोक और परलोक में अपने अपने कर्मों द्वारा पीड़ित होते हैं क्योंकि संचित कों को भोगे विना छुटकारा नहीं होता। टिप्पणी-जो जैसे कर्म करता है उनको वही भोगता है। कर्ता एक हो, और भोक्ता कोई दूसरा हो ऐसा नहीं हो सकता। इसी न्याय से इस लोक में जिन कर्मों का फल भोगना वाकी रहता है उनको दूसरे .भव में भोगने के लिये उस आत्मा को पुनर्जन्म धारण करना ही पढ़ेगा इस तरह पुनर्मव (पुनर्जन्म) की सिद्धि स्वयमेव हो जाती है। (४) संसार को प्राप्त जीव दूसरों के लिये ( या अपने जीवन व्यवहार में) जो कम करता है वे सब कर्म उदय (परिणाम) काल में खुद उसको ही , भोगने पड़ते हैं। उसके ( धन में भागीदार होने वाले ) वन्धु बान्धव कमों में __ भागीदार नहीं होते। (५) प्रमादी जीवात्मा धन से भी इस लोक या परलोक में शरण प्राप्त नहीं कर सकता। जिस तरह ( अन्धियारी रात में ) दिया के चूमने पर गाद अन्धकार फैल जाता
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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