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उत्तराध्ययन सूत्र
टिप्पणी- जैनदर्शनानुसार मोक्ष मार्ग की १ ली सीढी का नाम सम्यक्त्व है ।
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(२०) ( तथा ) जो पुरुष ४ अंगों (जिनका वर्णन ऊपर किया है ) को दुर्लभ जानकर संयम ग्रहण कर कर्माशों ( कर्म समूहों ) को तपद्वारा दूर करता है वह अवश्य ही सिद्ध होता है ( स्थिर मुक्ति को प्राप्त करता है ) ।
टिप्पणी - जैन दर्शन में आत्म विकास के पुण्य और निर्जरा ये दो अंग माने गये हैं । पुण्य से ही साधन मिलते हैं और सत्य धर्म को समझ कर टन साधनों द्वारा ( पतित न होकर ) आत्मविकास के मार्ग में अग्रसर होने को “निर्जरा" कहते हैं। सच्चे धर्म को नटु की उपमा दी गई है । वह नाचता है फिर भी उसकी निगाह - दृष्टि रस्सी पर ही लगी रहती हैं । उसी तरह सद्धर्मी की दृष्टि तो प्राप्त साधनों का उपयोग करते हुए भी मोक्ष की तरफ ही लगी रहती है । ऐसा मैं कहता हूँ:
इस तरह चतुरंगीय नामक तीसरा अध्ययन समाप्त हुआ ।