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उत्तराध्ययन सूत्र
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(सीमारहित ) है। संसार में इतनी वस्तुए हैं कि जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते-देखना तो दूर की बात है। ऐसी दशा में विवेक पूर्वक श्रन्दा रखकर आत्मविकास के मार्ग में मागे
बढ़ते जाना यही कल्याणकारी है। (४६) इन सब परिपहों को काश्यप भगवान महावीर ने कहा
है। उनके स्वरूप को जान कर (अनुभव करके ) भिक्षु किसी भी जगह उनमें से किसी से भी पीडित होने
पर भी कायर नहीं बनता। टिप्पणी-इनमें से बहुत से परिपह उच्च योगी को, कुछ मुनि को तथा
कुछ साधक को लागु पढ़ते हैं फिर भी इसमें से अपने जीवन में बहुत कुछ उतारा जा सकता है। भणगारी (साधु) मार्ग तथा गृहस्थमार्ग यद्यपि दोनों जुदे जुदे हैं किन्तु उनका पारस्परिक सम्बन्ध यड़ा हो गाद है। दोनों एक ही उद्देश्य की सिद्धि में लगे हुए हैं इसलिये श्रमणवर्ग के बहुत से विधान गृहस्थ को भी लागु पड़ते हैं। परिपह साधक के लिये अमृत है। सहनशीलता की पाठशाला साधक को आगे ही भागे बढ़ाती है।
ऐसा मैं कहता हूँ ' इस तरह "परिपह" नामक दुसरा अध्ययन समाप्त हुआ।
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