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________________ परिषह २३ (४१) परन्तु अव "पीछे ज्ञानफल वाले कर्मों का उदय होगा" इस तरह कर्म के विपाक का चिन्तन कर भिक्षु ऐसे समय में इस तरह मनको आश्वासन दे। टिप्पणी-पुरुषार्थ करते हुए भी अल्पबुद्धि तर्कबुद्धि पैदा न हो तो । उससे हताश न होते हुए पुरुषार्थ में लगा रहे। . (४२) “मैं व्यर्थ ही मैथुन से निवृत्त हुआ ( गृहस्थाश्रम छोड़कर ब्रह्मचर्य कारण किया), व्यर्थ ही इन्द्रियों का दमन किया क्योंकि धर्म कल्याणकारी है या अकल्याणकारी ? यह प्रत्यक्ष रूप में तो कुछ दिखाई नहीं देता (अर्थात् जब धर्म का फल प्रत्यक्ष नहीं दीखता है तो क्यों मैं कष्ट सहूँ ?) (४३) (अथवा) तपश्वयों, आयंबिल इत्यादि प्रहण करके तथा साधु की प्रतिमा (साधुओं के १२ अभिग्रहों की क्रिया), धारण करके विचरते हुए भी मेरा संसार भ्रमण क्यों नहीं छूटता ? (४४) इसलिये परलोक ही नहीं है या तपस्वी की ऋद्धि (अणिमा, गरिमा आदि) भी कोई चीज नहीं है, मैं साधुपन लेकर सचमुच ठगा गया इत्यादि इत्यादि प्रकार के विचार साधु मन में कभी न लावे । (१५) बहत्त से तीर्थकर ( भगवान ) हो गये, हो रहे हैं और होंगे। उनने जो कहा है वह सब झूठ है (अथवा तीर्थकर हुए थे, होते हैं अथवा होंगे ऐसा जो कहा जाता है यह झूठ है ) ऐसा विचार भिक्षु कभी न करे। टिप्पणी-मानवबुद्धि परिमित है किन्तु मानव-कल्पनाएं अपरिमित
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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