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उत्तराध्ययन सूत्र
(२७) संवमी और दान्त (इन्द्रियों को दमन करने वाला) ऐसे
साधु को कोई कहीं मारे या वध करे तो भी वह मनमें 'इस आत्मा का तो कभी नाश नहीं होता-ऐसी
भावना रक्खे। टिप्पणी-अपने ऊपर आये हुए मृत्यु संकट को भी मन में लाये बिना
समभाव मे सहन करना उसे 'क्षमाधर्म' कहते है । क्षमावान किसी भी तरह की प्रतिक्रिया ( बदला लेने की क्रिया) न करे
और न मन में खेद ही माने । (२८) "अरे रे! गृहत्यागी भिक्षु का तो जीवन बड़ा ही दुष्कर ___ होता है" क्योंकि वह मांगकर ही सब कुछ प्राप्त कर सकता
है। उसको विना मांगे कुछ भी प्राप्त हो नहीं सकता। (२९) भिक्षा के लिये गृहस्थ के घर जाकर भिक्षु को अपना हाथ,
फैलाना पड़ता है और यह रुचिकर काम नहीं है। इसलिये साधुपनेसे गृहस्थवास ही उत्तम है-ऐसा भिक्षु
कभी न सोचे। टिप्पणी-सच्चे मिक्ष को मांगना कई बार अरुचिकर लगता है किन्तु
मांगना रनके लिये धर्म है। इसी से इसे परिपह माना है। , (३०) गृहस्थों के यहां (जुदी जुदी जगह ) भोजन तैयार हो
उसी समय साधु भिक्षाचारी के लिये जाय । , वहाँ भिक्षा
मिले या न मिले तो भी बुद्धिमान भिक्षु खेदखिन्न न हो। (३१) "श्राज मुझे भिक्षा नहीं मिली, न सही, कल मिक्षा मिल
जायगी ! एक दिन न मिलने से क्या हुआ ?" साधु यदि ऐसा पक्का विचार रक्खे तो उसे भिक्षा न मिलने का, कमी दुःख न हो।