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________________ परिषह । - वह कालातिक्रम ( काल धर्म की मर्यादा का भंग) न करे, क्योंकि यह अच्छा है, यह खराब है'-ऐसी पापदृष्टिरखने वाला साधु अन्त में प्राचार में शिथिल हो जाता है। (२३) स्त्री, पशु, नपुंसक इत्यादि से रहित, अच्छा अथवा खराब कैसा भी उपाश्रय पाकर "इस एक रात के उपयोग से भला मुझे क्या दुःख पहुँच सकता है"-ऐसी भावना साधु रक्खे । टिप्पणी-स्त्री अथवा पशुरहित स्थान का विधान इसलिये किया गया है निससे निर्जन स्थान में भिक्षु समाधि में अच्छी तरह से स्थिर — रहे। उसका मन चलायमान न हो। (२४) यदि कोई भिक्षु को आक्रोश (कठोर शब्द ) कहे तो - साधु बदले में कठोर शब्द न कहे अथवा कठोर वर्तन तथा , क्रोध न करे क्योंकि वैसा करने से वह भी मूखों की कोटि में आ जायगा। इसलिये विज्ञ भिक्षु कोप न करे । टिप्पणी-आक्रोश अर्थात् (कठोर अथवा तिरस्कार व्यंजक शाब्द) (२५) श्रवण ( कान) आदि इन्द्रियों को कंटकतुल्य तथा संयम के धैर्य का नाश करनेवाली भयंकर तथा कठोर वाणी को सुनकर मिक्षु चुपचाप ( मौन धारण करके) उसकी उपेक्षा करे और उसको मनमें स्थान न दे । ) कोई उसको मारे पीटे तो भी भिक्षु मनमें क्रोध न करे और न मारने वाले के प्रति द्वेष ही रक्खे किन्तु तितिक्षा ( सहनशीलता ) को उत्तम धर्म मानकर दूसरे धर्मको आचरे।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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