________________
१८
उत्तराभ्ययन सून
(१८) संयमी साधु परिपहों से पीडित होता हुश्रा भी गांव में,
नगर में, व्यापारी वस्ती वाले प्रदेश में अथवा राजधानी में भी अकेले ही ( परिपहों को ) सहन करता हुआ
विचरण करे। टिप्पणी:-अपने दुःप में दूसरों को भागीदार न बनाये और अपने
मन को वश करके विचरे । (१९) किसी के साथ होड (वाद ) न करके भिक्षु एकाकी
(राग द्वेप रहित होकर) विहार करे। किसी स्थान में ममता न करे। गृहस्थों से अनासक्त रह कर किसी भी खास स्थान की मर्यादा ( भेदभाव ) रक्खे बिना
विहार करे। टिप्पणीः-संयमी समस्त पृथ्वी को कुटुंब मानकर ममत्व किंवा भेद ____ भाव रक्खे बिना, सभी स्थानों में बिहार करे । (२०) स्मशान, शून्य (निर्जन ) घर अथवा वृक्ष के मूल में
एकाकी साधु शांत चित्त से (स्थिर श्रासन से) बैठे
और दूसरों को थोड़ा सा भी दुःख न दे।। (२१) वहां पर बैठे हुए यदि उस पर उपसर्ग (किसी के द्वारा
जान बूझ कर दिये गये कष्ट ) आवे तो वह उन्हें दृढ़ मन से सहन करे, किन्तु शंकित अथवा भयभीत हो कर वह
दूसरी जगह न जाय । टिप्पणीः-एकांत में कहाँ और किस तरह मुनि बेटे उसका इसमें विधान
किया गया है। (२२) सामध्यवान तपस्वी (भिक्षु) को यदि अनुकूल अथवा
प्रतिकूल उपाश्रय ( रहने के लिये प्राप्त स्थान ) मिले तो