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________________ परिषद - टिप्पणी-साधक के संकट में उच्च भावना या विचार ही बड़े साथी हैं। (३२) ( कहीं की) वेदना दुःख से पीडित भिक्षु, उत्पन्न दुःख . को जान कर मनमें थोड़ी सी भी दीनता न लावे किन्तु तजन्य दुःख को समभाव से सहन करे। (३३) भिक्षु औषधि ( रोग के इलाज ) की इच्छा न करे किन्तु आत्मशोधक होकर शान्त रहे। स्वयं चिकित्सा.(प्रति उपाय) न करे और न करावे इसी में उसका सम्धा साधुत्व है। टिप्पणी-देहाध्यास (शरीर का ममत्व ) के त्यागी उच्च योगी की कक्षा की यह बात है। यहां आसपास के संयोग वल का विवेक करना उचित है। (३४) वस्त्र बिना रहने वाले तथा रूक्ष (रूखे) शरीर वाले तपस्वी साधु को तृण (दर्भ आदि) पर सोने से (शरीर . को) पीड़ा होती है(३५) या अतिताप पड़ने से अतुल वेदना होती है-ऐसा जान कर भी तृणों के चुभने से पीड़ित साधु वस्त्र का सेवन न करे। टिप्पणी-उच्च श्रेणी के जो भिक्षु शरीर पर वस्त्र धारण नहीं करते उनको यदि दर्भशय्या (शरीर) में चुभे तो भी वे उस कष्ट को सहन करें किन्तु वन काम में न लें। (३६) प्रीष्म अथवा अन्य किसी ऋतु में पसीना से, धूल या मैल से मलिन शरीर वाला बुद्धिमान भिक्षु सुख के लिये
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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