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उत्तराध्ययन सूत्र
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(८) ग्रीष्म ऋतु के उप्र ताप से अथवा अन्य ऋतु में सूर्य की
कड़ी गर्मी से तमाम शरीर वैचेन होता हो अथवा पसीने से तरबतर हो तो फिर भी संयमी साधु सुख की परिदेवन
(हाय, यह ताप कब शांत होगा! ऐसा लांत बचन) न कहे । (९) गर्मी से बेचेन तत्वन मुनि स्नान करने की इच्छा तक न
करे और न अपने शरीर पर पानी छिड़के। उस परिपहसे
छुटकारा पाने के लिये वह अपने ऊपर पंखा भी न करे । टिप्पणी-कष्ट का प्रतिकार (उपाय) करने से मन में निर्बलता आती
है इससे साधक को हमेगा सावधान रहना चाहिये । (१०) वर्षाऋतु में डांस मच्छरों के काटने से मुनि को कितना , भी कष्ट क्यों न हो, फिर भी वह समभाव रखे और युद्ध
में सब से आगे स्थित हाथी की तरह, शत्रु (क्रोध)
को मारे। (११) ध्यानावस्था में (अपना ) रक्त और मांस खाने वाले उन
द्र जन्तुओं को साधु न मारे. उन्हें न रडावे और न उन्हें त्रास ही दे । इतना ही नहीं उनके प्रति अपना मन भी दूषित न करे (अर्थात् उनकी तरफ से उपेक्षा भाव
रक्खे )। टिप्पगी-यदि चित्त पूर्ण रूप से समाधि में लगा हो तो शरीर सम्बन्धी
ध्यान बिलकुल हो ही नहीं सकता। (१०) वस्त्रों के बहुत पुराने अथवा फटे होने से "अब मेरे पास
कोई कपड़ा नहीं रहा" अथवा इन फटे-पुराने वस्त्रों को देख कर कोई मुझे नये वस्त्र देवे तो मेरे पास वस्त्र हों ऐसी चिन्तना साधु कभी न करे। , . .