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परिषह
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बचत ह
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कर।
टिप्पणी-उग्र भूख लगने पर भी यदि भोजन न मिले तो भी संयमी
मिक्षु ऐसा ही मानेः-'चलो, ठीक हुआ; यह अनायास तपश्चर्या
होगई। (४) कड़ी प्यास लगी हो फिर भी इन्द्रियनिग्रही, अनाचार से
भयभीत और संयम की लज्जा रखने वाला भिक्ष ठंड़ा ' (सचित) पानी न पिये किन्तु मिल सके तो 'अचित्त
(जीव रहित उष्ण ) पानी की ही शोध करे। । (५) लोगों की आवजाव से रहित मार्ग में यदि प्यास से
बचैन हो गया हो, मुँह सूख गया हो फिर भी साधु मन
में दैन्य भाव न लाकर उस परिषद को प्रसन्नतासे । सहन करे। टिप्पणी-आवजाव रहित एकांत मार्ग में यदि कोई जलाशय हो तो । 'यहां तो कोई है नहीं' ऐसा समझ कर सचित पानी पीने की इच्छा
हो आना संभव है। इसीलिये उक्त स्थान का यहां खास निर्देष
किया है। (६) गाम गाम, बिचरनेवाले और हिंसादि, व्यापारों के पूर्ण
त्यागी रूक्ष (सूखा) शरीर धारी ऐसे भिक्ष को यदि कदाचित शीत (ठंड) लगे तो वह जैनशासन के नियमों को याद करके कालातिक्रम ( व्यर्थं समय यापन)
न करे। टिप्पणी-शीत से बचने के उपाय शी चिन्ता में निद्राधीन होकर समय - नमितावे अथवा नियम विरुद्ध दूसरे उपचार न झरे । । । (७) शीत से रक्षा कर सके ऐसी' अपनी जगह नहीं है अथवा
कोई वस्त्र (कंबल आदि) भी अपने पास नहीं है, इसलिए आग से तापलू ऐसा विचार भिक्षु कभी न करे।