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विनय श्रुत
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टिप्पणी:-ब्रह्मचर्य यह नो मुमुक्षु का जीवन व्रत है। ब्रह्मचारी का
आचरण कैसा होना चाहिये उसका यहां निर्देश किया है। (२७) ( यह मेरा परम सौभाग्य है कि ) महापुरुष मुझे मीठा
उपालंभ अथवा कठोर शब्दों में भर्त्सना करते हैं। इससे मेरा परम कल्याण होगा ऐसा मानकर उसका विवेकपूर्वक
पालन करे। (२८) गुरुजन की शिक्षा ( दण्ड ) कठोर तथा कठिन होने पर' ' , भी दुष्कृत की नाशक होती है इसलिये चतुर साधक उसको ' 'अपना हितकारी मानता है किन्तु असाधु जन उसको द्वेष । जनक तथा क्रोधकारी मानता है।
निर्भय एवं दूरदर्शी पुरुष, कठोर दण्ड को भी उत्तम मानते हैं किन्तु मूढ़ पुरुषों को क्षमा एवं शुद्धि करने वाला हित
वाक्य भी द्वेष का कारण हो जाता है। (३०) गुरुजी के आसन से जो अधिक ऊँचा न हो और जो
चरचराता न हो ऐसे स्थिर आसन पर (शिष्य ) बैठे। खास कारण सिवाय वहां से न उठे और चंचलता छोड़
कर बैठे। (३१) समय होने पर, भिक्षुको (अपने) स्थान के बाहर आहार
निहारादि क्रियाओं के लिये जाना चाहिये और यथासमय वापिस आजाना चाहिये। अकाल को छोड़कर, सर्वदा
कालधर्म के अनुकूल ही सब काम करने चाहिये । टिप्पणीः-खास कारण के विना भिक्षु को अपना स्थान नहीं छोड़ना
चाहिये और समय २ पर कालधर्म को लक्ष्य में रखकर अनुकूलता ., से काम करना चाहिये। .: