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________________ जीवाजीवविभक्ति ४४१ - - vnvr vvvvvm (१८१) ये सब स्थलचर पंचेद्रिय जीव सर्वत्र लोक में व्याप्त नहीं है किन्तु उसके अमुक भाग में ही स्थित हैं। अब मैं उनका कालविभाग चार प्रकार से कहता हूँ-- (१८२) प्रवाह की अपेक्षा से ये सब जीव अनादि एवं अनन्त हैं किन्तु आयु की अपेक्षा से ये सादि-सान्त हैं। (१८३) स्थलचरजीवों की जघन्य एवं उत्कृष्ट आयुस्थिति क्रम से अन्तर्मुहूर्त एवं तीन पल्यों की है। टिप्पणी-पल्य यह काल का अमुक प्रमाण है। (१८४) स्थलचर जीवों की कायस्थिति (निरन्तर एक ही शरीरधारण करते रहने की) जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की तथा उत्कृष्ट स्थिति ३ पल्यसहित दो से लेकर ९ पूर्व कोटि तक की है। (१८५) वे स्थलचर जीव अपना एक शरीर छोड़ कर दूसरी बार वही शरीर धारण करें उसके बीच के अन्तराल की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट स्थिति अनंतकाल तक की है। (१८६) खेचर जीव चार प्रकार के हैं-(१) चमड़े के पंख वाले (चिमगादड़ आदि), (२) रोम पक्षी ( चकवा, हंस आदि), (३) समुद्गपक्षी ( जिन पक्षियों के पंख ढंके हुए सन्दूक जैसे हों। ऐसे पक्षी मनुष्यक्षेत्र के बाहर रहते हैं); और (४) वितत पत्ती (सूप सरीखे पंखवाले)। ११८७) ये समस्त लोक में नहीं किन्तु लोक के अमुक भाग में ही रहते हैं। अब मैं उनका काल विभाग चार प्रकार से कहता हूँ।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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