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उत्तराध्ययन सूत्र
रहिन तथा घरवार के बन्धनों से मुक्त ऐसे भिक्षु की विनय का उपदेश करता हूँ उसे तुम क्रमपूर्वक सुनो। टिप्पणीः- यहां 'संयोग' का अर्थ आसन्हि है। आसन्धि के छूट जाने पर ही जिज्ञासा जागृत होती है। जिज्ञासा जागृत होने पर हो वरवार का समय दूर होता है। क्या ऐसी भावना का हम अपने जीवन में कसी २ अनुभव नहीं करते ?
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(२) जो गुरु की आज्ञा का पालन करनेवाला हो, गुरु के निकट रहता ( श्रन्तेवासी ) हो, तथा अपने गुरु के इंगित तथा श्राकार ( मनोभाव तथा श्राकार ) का जानकार हो उसे 'विनीत' कहते हैं |
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टिप्पणीः- आज्ञापालन, प्रीति और चतुरता – ये तीनों गुण अर्पणवा में होने चाहिये । निकट रहने का अर्थ पास रहना इतना ही नहीं # किन्तु गुरु के हृदय में अपने गुणों द्वारा स्थान कर लेना है । (३) श्राज्ञा का उल्लंघन करने वाले, गुरुजनों के हृदय से रहने वाले, शत्रु समान ( विरोधी ) तथा विवेकहीन सावक को 'अविनीत' कहते हैं ।
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(४) जिस तरह सड़ी कृतिया सब जगह दुत्कारी जाती है उसी तरह शत्रु समान, वाचाल ( बहुत बोलने वाला ) तथा दुराचारी ( स्वच्छंदी ) शिष्य सर्वत्र अपमानित होता है । (५) जिस तरह शुकर स्वादिष्ट अन्न के पौधे को छोड़कर बिष्टा खाना पसन्द करता है उसी तरह स्वच्छंदी मूर्ख ( शिष्य ) सदाचार छोड़कर स्वच्छन्द विचरने में ही आनन्द मानता है ।
( ६ ) कुत्ता, शुकर और मनुष्य इन तीनों दृष्टान्तों के 'भावे
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