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विनय श्रुत
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(आय) को सुनकर अपने कल्याण का इच्छुक (शिष्य) विनय मार्ग में अपना मन लगावे ।
( ७ ) इसलिये मोक्ष के इच्छुक और सत्यशोधक को विवेकपूर्वक विनय की आराधना करनी चाहिये और सदाचार को बढ़ाते रहना चाहिये । ऐसा करने से उसको कहीं भी अपमानित अथवा निराश नहीं होना पड़ेगा ।
(८) प्रति शान्त बनो और मित्रभाव से ज्ञानी पुरुषों से उपयोगी साधन सीखो। निरर्थक वस्तुओं को तो छोड़ ही देना चाहिये ।
(९) महापुरुषों की शिक्षा से क्रुद्ध होना मूर्ख मनुष्य का काम है । चतुर होकर सहनशीलता रक्खो । नीच वृत्ति के मनुष्यों की संगति न करो । हँसी मजाक और खेल कूद भी छोड़ देने चाहिये ।
टिप्पणी-- महापुरुष जव शिक्षा देते हों तब कैसा आचरण करना चाहिये उसका लक्षण उपरोक्त गाथा में दिया है ।
(१०) कोप करना यह चांडाल कर्म है, यह न करना चाहिये । व्यर्थ बकवाद मत करो । समय की अनुकूलता के अनुसार उपदेश श्रवण कर फिर उसका एकान्त में चिन्तनमनन करना चाहिए ।
भूल
(११) में यदि कदाचित चांडाल कर्म ( क्रोध ) हो जाय तो उसे कभी मत छुपाओ। जो दोष हो जाय उसे गुरुजनों के समक्ष स्वीकार करो। यदि अपनी दोष न हो तो विनयपूर्वक उसका खुलासा कर देना चाहिये ।
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