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विनय-श्रुत
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विनय
नय का अर्थ यहां अर्पणता है। जैनदर्शन के सिद्धान्तानुसार, जब वह अर्पणता परमात्मा के प्रति दिखाई जाती है तब उसे भक्ति कहते है किन्तु जब वह गुरुजनों के प्रति दिखाई जाती है तब उसकी गणना स्वधर्म अथवा स्वकर्तव्य में की जाती है । इस अध्ययन में गुरु को लक्ष्य कर के, शिष्य तथा गुरु के पारस्परिक धर्मो का निरूपण किया गया है ।
अर्पणाता-भाव के उदय होने से अहंकार का नाश होता है। जब तक अहंकार का नाश न होगा तब तक प्रात्मशोधन नहीं हो सकता और आत्मशोधन के मार्ग का अनुसरण किये बिना सच्ची शान्ति एवं सुख की प्राप्ति नहीं होती। सभी जिज्ञासुओं को अवलंबन (सत्संग ) की आवश्यकता तो है ही ।
भगवान बोले:(१) संयोग ( श्रासक्तिमय ममत्व भाव ) से विशेष रूप से
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