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________________ उत्तराध्ययन सूत्र MAN VAvvv vvvvvvvvvvv अाज चेतन और जड़ दोनों अपना २ धर्म गुमा बठे हैं। चेतनमय जड़ और जड़मय चेतन ये दोनों परस्पर ऐसे तो एकाकार हुए दिखाई देते है कि सहसा उनको अलग २ नहीं पहिचाना जा सकता। जड़ के अनादि संसग से मलिन हुआ चैतन्य , जीवात्मा अथवा 'वहिरात्मा' कहलाता है और जब वह जीवात्मा अपने स्वरूप का अनुभव करने लगता है तब उसे 'अन्तरात्मा' कहते है और जो जीव कम रहित हो जाता है उसे 'परमात्मा' कहते है। जगत के पदार्थो को यथार्थ स्वरूप में जानने की इच्छा होना इसे 'जिज्ञासा' कहते है। ऐसी जिज्ञासा के परिणाम स्वरूप वह जगत् के समस्त पदार्थों में से मूलभूत मात्र दो पदार्थों को चुन लेता है। इसके बाद ही जीव की चैतन्य तत्त्व पर वरावर रुचि जमती है और तभी वह शुद्ध बनने के लिये शुद्ध चैतन्य की प्रतीति कर आगे बढ़ता है । जीव तत्त्व के भिन्न २ स्वरूपों को जानने के बाद वह स्वयं जीव-अजीवतत्त्व इन दोनों तत्वों के संयोगिक वलों का विचार करने लगता है। समस्त संसार का स्वरूप उसके सामने से मूर्तिमंत हो कर निकल जाता है तव वह आत्माभिमुख होता है और श्रात्मानुभव का यानन्द पाने लगता है। प्रात्मलक्ष्य पर ध्यान देकर आते हुए कर्मी को निरोध करता है, और धीमे २ पूर्व संचित कर्म समूह को खपाते हुए शुद्ध चैतन्य स्वरूप को प्राप्त होता है। भगवान बोले-- (१) जिस को जानकर भिक्षु संयम में उपयोग पूर्वक उद्यमवंत होता है ऐसा जीव तथा अजीव के भिन्न २ भेद संबंधी , प्रकरण तुमसे कहता हूँ।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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