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अरणगाराध्ययन
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वन तक न करना चाहिये। इसीलिये त्यागी के लिये भिक्षाचरी
को ही धर्म्य बताया है। • (१६) सूत्र में निर्दिष्ट नियमानुसार हो अनिंदित घरों में सामु
दानिक गोचरी करते हुए आहार की प्राप्ति हो किंवा न हो
फिर भी मुनि को सन्तुष्ट ही रहना चाहिये। टिप्पणी-जो कोई कुल दुर्गुणों के कारण निंदित हों अथवा अभक्ष्य
मक्षी हों उनको छोड़कर भिक्षु को भिन्न २ कुलों में निर्दोष भिक्षा
वृत्ति करनी चाहिये। (१७) अनासक्त तथा स्वादेन्द्रिय के ऊपर काबू रखनेवाला साधु
रसलोलुपी न बने। यदि कदाचित सुन्दर स्वादु भोजन न मिले तो खिन्न न हो किंवा उसकी वांछा न करे। महामुनि स्वादेन्द्रिय की तुष्टि के लिये भोजन न करे किन्तु संयमी जीवन का निर्वाह करने के उद्देश्य से ही
भोजन करे। (१८) चंदनादि का अर्चन, सुन्दर श्रासन, ऋद्धि, सत्कार,
सन्मान, पूजन अथवा बलात् वंदन-इनकी इच्छा भिक्षु
मन से भी न करे। (१९) मरणपर्यंत साधु अपरिग्रही रहकर तथा शरीर का भी
ममत्व त्यागकर, नियाणरहित हो शुक्लध्यान का ध्यान
धरे और अप्रितबंधरूप से विहार करे। (२०) कालधर्म ( मृत्यु अवसर) प्राप्त हो तब चारों प्रकार के.
आहार त्याग कर वह समर्थ भिक्षु इस अन्तिम शरीर को छोड़ कर सब दुःखों से छूट जाय ।