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________________ ४१२ उत्तराध्ययन सूत्र (१२) सब दिशाओं में शस्त्र की धारा की तरह फैली हुई और असंख्य जीवों का घात करनेवाली ऐसी अग्नि के समान अन्य कोई दूसरा शस्त्र घातक नहीं है। इसलिये साधु अग्नि कभी न जलावे । टिप्पणी-मिक्षु स्वयं ऐसी कोई हिंसक क्रिया न करे, न दूसरों से ___ करावे और न दूसरों को वैसा करते देखकर उसकी प्रशंसा ही करे। (१३) खरीदने और बेचने की क्रियाओं से विरक्त तथा सुवर्ण एवं मिट्टी के ढेले को समान समझनेवाला ऐसा भिक्षु सोने चांदी की मन से भी इच्छा न करे। टिप्पणी-जैसे मिट्टी के ढेले को निर्मूल्य जानकर कोई उसे नहीं उठाता वैसे ही साधु सुवर्ण को देखते हुए भी उसे स्पर्श न करे क्योंकि त्याग करने के बाद उसके लिये सोना और ढेला दोनों समान है। (१४) खरीदनेवाले को ग्राहक कहते हैं और जो बेचता है उसे वनिया ( व्यापारी) कहते हैं इसलिये यदि क्रयविक्रय में साधु भाग ले तो वह साधु नहीं कहाता । (१५) भिक्षा मांगने का लिया है व्रत जिसने ऐसे भिक्षु को भिक्षा मांगकर ही कोई वस्तु ग्रहण करनी चाहिये, खरीद कर कोई वस्तु न लेनी चाहिये, क्योकि खरीद करने और बेचने की क्रियाओं में दोप भरा हुआ है, इसलिये भिक्षा वृत्ति ही सुखकारी है। टिप्पणी-कंचन और कामिनी ये दो वस्तुएं संसार की बंधन हैं। इनके पीछे भनेकानेक दोप भरे हुए हैं। उनको एक बार त्याग देने के बाद व्यागी को उनका परिग्रह (संग्रह) तो क्या, उनका चित. और कामिनी य प हैं। उनका क्या, उनक
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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