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अणगाराध्ययन
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(६) इसलिये स्मशान, शून्य घर, वृक्ष के मूल अथवा गृहस्थ
के अपने लिये बनाए हुए सादे एकांत मकान में ही साधु
को रागद्वेषरहित होकर निवास करना चाहिये। टिप्पणी-उस समय में बहुत से भाविक गृहस्थ अपनी धार्मिक क्रियाएं
करने का एकांत स्थान अपने घर से अलग बनवा लिया करते थे। (७) जिस स्थान में बहुत से जीवों की उत्पत्ति न होती हो,
स्वपर के लिये पीड़ाकारक न हो, स्त्रियो के आवागमन से रहित हो, ऐसे एकांत स्थान में ही परम संयमी भिक्षुः
को निवास करना कल्पता है (योग्य है)। (८) भिक्षु ( स्वयं ) घर बनावे नही, दूसरों द्वारा बनवावे नहीं,
क्योंकि घर बनाने की क्रिया में अनेक जीवों की हिंसा
होती है। (९) क्योंकि गृह वनाने की क्रिया में सूक्ष्म एवं स्थूल अनेक
स्थावर एवं त्रस जीवों की हिंसा होती है इसलिये संयमी पुरुष को घर बनाने की क्रिया का सदन्तर त्याग कर देना
चाहिये। (१०) उसी प्रकार आहार पानी बनाने ( रांधने) और वनवाने
(धवाने ) में भी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति स्थावर एवं त्रस जीवों की हिंसा होती है इसलिए प्राणियों की दया के लिये संयमी साधु स्वयं अन्न न पकावे और न
दूसरों द्वारा पकवावे। (११) जल, धान्य, पृथ्वी और ईंधन के आश्रय में रहते हुए
अनेक जीव आहार-पानी बनाने में हने जाते है, इसलिए भिक्षु को भोजन नहीं पकाना चाहिये।