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उत्तराध्ययन सूत्र
अच्छे कर्मों के परिणामों से जीवात्मा का घाट घड़ जाता है इसीसे वह कर्मयोग-शरीर, इन्द्रिय, प्राकृति, वर्ण इत्यादि धारण करता है और इसके द्वारा संचित कर्मों की निर्जरा तथा नवीन कर्मी का बन्धन ये दो कार्य प्रतिक्षण चालू रहते हैं। जब तक इन कर्मों से छूट जाने का सच्चा मार्ग नहीं मिल जाता जब तक यात्मज्ञान जागृत नहीं होता, तबतक उन कर्मों के फलों को जुदी २ गतियों में जुदी २ तरह से यह जीव भोगता ही रहता है।
कर्म वहुत सूक्ष्म होने से अपने मूलस्वरूप में देखे नहीं जा सकते किन्तु निमित्त मिलने पर उनके कारण आत्मा पर होने वाला अच्छा या बुरा असर हमें प्रत्यत्त दिखाई देता है, जैसे जब आदमी क्रोध में होता है तब उसकी आँखें और मुंह लाल पड़ जाते है और प्राकृति कुछ की कुछ हो जाती है। इसी तरह अन्य भावों के उदय होने से शरीर की प्राकृति, हावभाव और कार्य पर असर पड़ता है। इसीप्रकार यह लेश्या भी जीवात्मा का कर्मसंसर्ग से उत्पन्न हुआ एक विकार विशेष है।
लेश्या स्वयं कर्मरूप होने से उसमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण (ये चारों लक्षण प्रत्येक पुद्गल पदाथ में पाये जाते हैं) पाये जाते हैं परन्तु फिर भी कमपिंड इतने सूक्ष्म है कि उन्हें हम अपनी चर्म चक्षुयों से नहीं देख सकते, शरीर द्वारा स्पर्श नहीं कर सकते । करोड़ों और अरवों मील की दूरी पर स्थित छोटे से छोटे नक्षत्रों को देख लेने की क्षमतावाली बड़ी से बड़ी दूरवीन और पानी के एक सूक्ष्म विन्दु में असंख्य कीटाणुओं (Germs) को देखनेवाले माइक्रोस्कोप (मूक्ष्मदर्शक यंत्र) भी उस सच्म कमपिंड को नहीं देख सकते । उसको समझने के लिये तो दिव्यज्ञान एवं दिव्यदर्शन की जरूरत है।