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उन्तराध्ययन सूत्र
(१०७)इस तरह संयम के अनुष्ठानों द्वारा संकल्प-विकल्पों में
समता प्राप्त कर, उस विरागी आत्मा की शब्दादि विषयों के असंकल्प से ( दुष्ट चितवन न करने से ) कामभोग
सम्बन्धी तृष्णा बिलकुल क्षीण हो जाती है। (१०८)कृतकृत्य वह वीतरागी जीव ज्ञानावरणीय कर्म को एक
क्षणमात्र में खपा देता है और उसी तरह दर्शनावरणीय एवं अन्तराय को खपा देता है। (इस तरह समस्तः
घातिया कमों का नाश कर देता है) (१०९)माह एवं अन्तरायरहित वह योगीश्वर आत्मा; जगत के
यावन्मान पदार्थों को जानने एवं अनुभव करने लगती है तथा पाप के प्रवाह रोककर शुक्लध्यान की समाधि प्राप्त कर सर्वथा शुद्ध हो जाती है और आयु के क्षय होने पर
मोन को प्राप्त होती है। (११०)जो दुःख यावन्मात्र संसारी जीवों को पीड़ित कर रहा है
उस सर्व दुःख से तथा संसार रूपी अनादि अनन्त रोग से ऐसा प्रशस्त जीवात्मा सर्वथा मुक्त हो जाता है और अपने
लक्ष्य को प्राप्त कर अनन्त सुख का स्वामी होता है। (१११)अनादि काल से जीव के साथ लगे हुए दुःख बन्धन की
मुक्तिका यह मार्ग भगवान ने इस प्रकार कहा है। बहुत, स जीव क्रमपूर्वक इस मार्ग का अनुसरण कर अत्यन्त
मुखी ( मोक्ष को प्राप्त हुए हैं। टिप्पणी-शब्द, रूप, गंध, रस तथा स्पर्श ये पांच विषय है। के
अपनी अपनी अनुकूल इन्द्रिय को उत्तेजित करने का काम बढ़ी ही सफलतापूर्वक करते है मात्र निमित्त मिलना चाहिये। दूसरी बात.