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________________ प्रमादस्थान ३८७ __(६) अरति (७) रति, (८) हास्य, (९) भय, (१०) शोक, (११) पुरुषवेद का उदय, (१२) स्त्रीवेद का उदय, (१३) नपुंसकवेद का उदय, और (१४) भिन्न भिन्न प्रकार के खेद । (ये सब भाव मोहासक्त जीवों को हुआ करते हैं।) (१०३)इस तरह कामभोग में आसक्त हुआ जीव इस प्रकार के अनेक दुर्गतिदायक दोषों को इकट्ठा कर लजित होता है और सर्व स्थानों में अप्रीतिकारी करुणोत्पादक दीन बना हुआ वह दूसरे बहुत से दोषों को भी प्राप्त होता है। (१०४)इसी तरह इन्द्रियों के विषयरूपी चोर के वशीभूत हुआ भिक्षु भी अपनी सेवा करने के लिये साथी (शिष्यादि ) की इच्छा करता है किन्तु साधु के प्राचार को पालना नहीं चाहता और संयमी होने पर भी तप के प्रभाव को न पहिचान कर पश्चात्ताप (अरे, क्यो मैंने त्याग किया ? इत्यादि) किया करता है। इस तरह से अनेकानेक विकारों (दोषों) को वह उत्पन्न करता जाता है। (१०५)इसके बाद ऐसे विकारों के कारण, मोहरूपी महासागर में डूबने के उसे भिन्न भिन्न निमित्त कारण मिल जाते हैं और वह अनुचित कार्यों में लग जाता है। उससे उत्पन्न हुए दुःख को दूर कर सुख की इच्छा से वह आसक्त प्राणी हिंसादि कार्यों में भी प्रवृत्ति करने लगता है। (१०६)किन्तु जो विषयविकारो से विरक्त हैं उन्हें इन्द्रियो के इस प्रकार के शब्दादि विषय मनोजता अथवा अमनोज्ञता के . भाव ही उत्पन्न नहीं कर सकते (अर्थात रागद्वेष उत्पन्न नहीं कर सकते)।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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