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प्रमावस्थान
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यह है कि इन सब विषयों का बड़ा ही गाढ़ पारस्परिक सम्बन्ध है और जो एक भी इन्द्रिय का काबू ढीला पड़ा तो दूसरी इन्द्रियों पर कावू रह ही नहीं सकता। जो कोई जिह्ना का काबू खोता है वह दूसरी इन्द्रियों का भी काबू गुमा बैठता है इसलिये एक भी इन्द्रिय को छूट देना यह यद्यपि देखने में तो एक छोटी सी भूल मालूम होती है, किन्तु यह महान अनर्थ का कारण है जिसका परिणाम एक नहीं किन्तु अनेक भवों तक भोगना पड़ता है इसलिये सुज्ञ साधक को दान्त, शान्त और अडग रहना चाहिये ।
दान्त, शाल भयो तक भावका कारण है जी सी मूल मा
ऐसा मैं कहता हूँ:इस तरह 'प्रमादस्थान' सम्बन्धो बत्तीसवां अध्ययन समाप्त हुआ।