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________________ ३७८ उत्तराध्ययन सूत्र www हुए (५०) जो जीव गंध में तीत्र यासक्ति रखता है वह (चन्दनादि ) ' औषधियों की सुगंध में आसक्त होकर अपने बिल में से निकले की तरह अकाल मृत्यु को प्राप्त होता है । (५१) और जो जीव मनोज्ञ गंध पर तीव्र द्वेप रखता है वह तत्क्षण ही दुःख को प्राप्त होता है। इस तरह ऐसा जीव अपने ही दुर्दम्य दोप से दुःखी होता है उसमें गंध का जरा भी दोष नही है । (५२ ) जो कोई सुंगध पर अतिशय राग करता है वह आसक्त पुरुष अमनोज्ञ गंध पर द्वेप रखता है और अन्त में वह अज्ञानी उस दुःख से खून ही पीड़ित होता है किन्तु ऐसे' दोप में वीतरागी मुनि लिप्त नहीं होता । (५३) अत्यन्त स्वार्थ में डूबा हुआ वह बाल और मलिन जीव सुगन्ध में लुब्ध होकर अनेक प्रकार के की हिसा कर डालता है और भिन्न २ परिताप तथा पीड़ा देता है । चराचर जीवों प्रकार से उनको, (५४) फिर भी गंध की आसक्ति तथा मूर्छा से उस मनोज्ञ गंध को प्राप्त करने में, उसके रक्षण करने में, उसके वियोग में अथवा उसके विनाश में उस जीव को सुख कहाँ मिलता है ? उसका उपयोग करते समय भी वह तो अतृप्त ही रहता है । (५५) जब गंध का भोग करते हुए भी जीव असन्तुष्ट ही रहता है तब उसके परिग्रह में उसकी श्रासक्ति और भी बढ़ती जाती है और प्रति श्रासक्त उस जीव को कभी भी सन्तोष नहीं होता और असन्तोष के दोष से लोभाकृष्ट
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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