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प्रमादस्थान
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तथा दुःखी वह जीवात्मा दूसरों के सुगन्धित पदार्थों की भी चोरी कर लेता है ।
(५६) इस प्रकार अदत्त का ग्रहण करनेवाला, तृष्णा द्वारा पराजित और सुगन्ध भोगने तथा प्राप्त करने में असन्तुष्ट वह प्राणी लोभ के दोष से कपट तथा असत्यादि दोषों का सहारा लेता है और इससे वह जीव दुःख से मुक्त नहीं होता ।
(५७) असत्य बोलने के पहले, उसके बाद अथवा (असत्य वाक्य ) बोलते समय भी ऐसा दुष्ट हृदय प्राणी अतिशय दुःखी ही रहता है और वह दुःखी जीवात्मा इस तरह अदत्त वस्तुओं को ग्रहण करते हुए भी गंध में अतृप्त होने से अति दुःखी एवं असहायी हो जाता है । (५८) इस प्रकार गंध में अनुरक्त जीव को थोड़ा भी सुख कहां से मिले ? जिस वस्तु को प्राप्त करने के लिये उसने कष्ट भोगा, उस गंध के उपभोग में भी वह अत्यन्त क्लेश तथा दुःख ही पाता है ।
(५९) इस तरह अमनोज्ञ गंध में द्वेष करनेवाला वह जीव दुःखों की परम्परा खड़ी कर लेता है और अपने द्वेषपूर्ण चित्त द्वारा केवल कर्मसंचय ही किया करता है और वे कर्म अन्त में उसे दुःखदायी होते हैं ।
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(६०) परन्तु जो मनुष्य गंध से विरक्त रहता है वह शोक से भी उत्पन्न हुआ कमलदल जिस वैसे ही इस संसार के बीच
रहित रहता है और जल में तरह जल से लिप्त रहता है