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(४४) मूंठ बोलने के पहिले, बोलने के बाद तथा बोलते समय भी वह असत्यभाषी दुःखी आत्मा इस प्रकार अदत्त वस्तुओं को ग्रहण करते तथा शब्द में अतृप्त रहते हुए और भी दुःखी और असहाय बन जाता है ।
श्रमादस्थान
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थोड़ा भी
सुख कहां से मिले ? वह शब्द का उपभोग करते हुए भी अत्यन्त केश तथा दुःख पाता है फिर उनको प्राप्त करने के लिए भोक्तव्य दुःख की बात ही क्या ?
(४५) शब्द में अनुरक्त ऐसे जीव को
( ४६ ) इसीप्रकार अमनोज्ञ शब्द मे द्वेष करनेवाला वह जीव दुखो की परम्पराएँ उत्पन्न करता है तथा दुष्टचित्त होने से केवल कर्मों को संचित करता है और उन कर्मों का परिणाम केवल दुःखकर ही होता है ।
(४७) परन्तु शब्द से विरक्त हुआ जीव उस तरह के शोक से रहित रहता है और जैसे जल में उत्पन्न हुआ कमलपत्र जल से अलिप्त रहता है वैसे ही इस संसार में रहता हुआ वह जीव बाह्य दुःख परम्परा में लिप्त नहीं होता है ।
(४८) गंध यह प्राणेन्द्रिय (नाक) का ग्राह्य विषय है । सुगंध राग का तथा दुर्गंध द्वेष का कारण है । जो जीव इन दोनों में समभाव रख सकता है वही वीतरागी है ।
(४९) नासिका गंध ग्रहण करती है और गंध नासिका का ग्राह्य विषय है । इसलिये मनोज्ञ गंध राग का हेतु है और श्रमनोज्ञ गंध द्वेष का कारण है ऐसा महापुरुषों ने कहा है ।
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