SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 454
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७६ उत्तराध्ययन सूत्र (३९) सुन्दर शब्द में एकान्त आसक्त वह रागी जीव अमनोज्ञ शब्द पर द्वेप करता है और अन्त में उसके दुःख से खूब ही पीड़ित होता है; किन्तु ऐसे दोष में विरागी मुनि लिप्त नहीं होता। (४०) अत्यन्त स्वार्थी, मलिन वह अज्ञानी जीव शब्द की आसक्ति का अनुसरण करके अनेक प्रकार के चराचर जीवों की हिंसा कर डालता है और भिन्न २ उपायों से उन्हें परिताप तथा पीड़ा देता है। (४१) मधुर शब्द की आसक्ति से मूर्छित हुआ जीव मनोज्ञ शब्द को प्राप्त करने में, उसका रक्षण करने में, उसके वियोग में, अथवा उसके नाश में कभी भी सुख कहां पाता है ? उनको भोग करते हुए भी उसको तृप्ति नहीं होती। (४२) शब्द भोगने में असन्तुष्ट उस जीव की मूर्छा के कारण उस पर और भी आसक्ति बढ़ जाती है और तब वह श्रासक्त जीव कभी भी सन्तुष्ट नहीं होता और असन्तोष दोष से लोमाकृष्ट होकर वह दूसरे का अदत्त भी ग्रहण करने लगता है। (दूसरों के भोगों में चोरी से हिस्सा बांटता (४३) तृष्णा से पराजित होने से वह जीव अदत्त का ग्रहण (चोरी) करता है फिर भी वह शब्द को भोगने तथा उसकी प्राप्ति करने में सदंव श्रसन्तुष्ट ही रहता है और लोभ के दोष से वह कपट, असत्यादि दोष का सहारा लेता है भोर व कमी भी दुःखों से मुक्त नहीं होता। .. से वह कपट, असन्तुष्ट ही रहत इसलिये ऐसा जोत्यादि दोष का और लोभ के दोष
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy