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________________ प्रमादस्थान ३७५ इसलोक तथा परलोक दोनों में उसे केवल दुःख का ही कारण होता है । (३४) किन्तु रूप से विरक्त हुआ जीव शोकरहित होता है और जैसे जल मे उत्पन्न हुआ कमल का पत्ता उससे अलिप्त ही रहता है वैसे ही संसार मे रहते हुए भी ऊपर के दुःख समूह को परम्परा में वह लिप्त नहीं होता है । ( अर्थात् उसे दुःख नहीं होता ) । > (३५) शब्द यह श्रोत्रेन्द्रिय ( कान ) का विषय है । मधुर शब्द राग का कारण है और कटु शब्द द्वेष का कारण है । जो जीवात्मा इन दोनों में समभाव रख सकता है वही वीतरागी है - ऐसा महापुरुषों ने कहा है । (३६) कान शब्द का ग्रहण कर्ता है और कान का विषय शब्द है - ऐसा महापुरुषों ने कहा है । अमनोज्ञ शब्द द्वेष का तथा मनोज्ञ शब्द राग का कारण है । (३७) जो जीव शब्दों में तीव्र आसक्ति रखता है वह संगति के राग मे आसक्त मृग (हिरन ) के समान मुग्ध होकर तथा स्वर के मिठास मे अतृप्त रहता हुआ अकाल मृत्यु को प्राप्त होता है । (३८) और जो जीव अमनोज्ञ शब्द में तीव्र द्वेष करता है वह उसी समय दुःख को प्राप्त होता है और अन्त में वह अज्ञानी बहुत ही अधिक पीड़ित होता है । इस प्रकार ऐसा जीव अपने ही दुर्दम्य दोष से दुःखी होता है इसमें शब्द का जरा भी दोप नहीं है ।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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