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उत्तराध्ययन सूत्र
नष्ट हुई समको जिसको किसी भी वस्तु का प्रलोभन नहीं होता । और जिसका लोभ ही नष्ट हो चुका है उसके लिये श्रासक्ति जैसी कोई वस्तु ही नहीं होती ।
(९) इसलिये राग, द्वेप और मोह -- इन तीनों को मूलसहित उखाड़ फेंकने की इच्छावाले साधु को जिन जिन उपायों को ग्रहण करना चाहिये उनको मैं यहां क्रमपूर्वक वर्णन करता हूँ । ( उसे तुम ध्यान पूर्वक सुनो )
(१०) विविध प्रकार के रसों ( रसवाले पदार्थों ) को अपने कल्याण के इच्छुक साधु को भोगना नहीं चाहिये क्योंकि रस, इन्द्रियों को उत्तेजित कर देते हैं और जैसे मीठे फलवाले वृक्ष के ऊपर पक्षी टूट पड़ते हैं तथा उसे दुःख देते हैं वैसे ही इन्द्रियों के विषयों में उन्मत्त हुए मनुष्य के ऊपर कामभोग भी टूट पड़ते हैं और उसे पीडित करते हैं । (११) जिस तरह बहुत ही सूखे ( ईंधन रूप ) वृक्षों से भरे हुए वन में, पवन के कोरों सहित उत्पन्न हुई दावानल चुकती नहीं है उसी तरह विविध प्रकार के रसवाले आहारों को भोगनेवाले ब्रह्मचारी की इन्द्रियरूपी अनि शान्त नहीं होती ( इसलिये रस सेवन करना किसी भी मनुष्य के लिये हितकारी नहीं है) ।
(१२) जैसे उत्तम श्रौषधियों से रोग शान्त होजाता है वैसे ही दमितेन्द्रिय, एकान्त शयन, एकान्त श्रासन इत्यादि भोगनेवाले तथा अल्पाहारी मुनि के चित्त का रागरूपी शत्रु पराभव नहीं कर सकते । ( अर्थात् आसक्तियां उसके चित्त में विकार उत्पन्न नहीं कर सकती )