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प्रमादस्थान
जब यह संसार ही अनादि है तो दुःख भी अनादि ही
मानना चाहिये। परन्तु अनादि होने पर भी, यदि दुःखका मूल ढूंढकर उस मूल को ही दूर कर दिया जाय तो संसार में रहते हुए भी दुःखपाश से छूटा जा सकता है। सर्व दुःखों से रहित होना इसी का नाम तो मोत है। सम्यग्ज्ञान के सहारे ऐसे मोक्ष की प्राप्ति अनेक महापुरुषों ने की है, (प्राप्त कर सकते है और प्राप्त कर सकेंगे। सर्वज्ञ का यह अनुभव वाक्य है।
जन्ममृत्यु के दुःख का मूल कारण कर्मबंधन है। उस कर्म बन्धन का मूल कारण मोह है और मोह, तृष्णा, राग या द्वेष इत्यादि में प्रमाद ही का मुख्य हाथ है। कामभोगों की आसक्ति यही प्रमाद स्थान हैं। प्रमाद से अज्ञान की वृद्धि होती है। प्रशान (अथवा मित्थात्व) से शुद्ध दृष्टि का विपर्यास होता है और चित्त में मलिनता का कचरा इकट्ठा होता जाता है। इसीलिए ऐसा मलिन चित्त मुक्ति मार्ग के अभिमुख नहीं हो सकता ।