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उत्तराध्ययन सूत्र
(१८) सत्ताईस प्रकार के अणगारगुणों में तथा अट्ठाईस प्रकार
के आचार प्रकल्पों (प्रायश्चित्तों ) में जो भिक्षु हमेशा
उपयोग रखता है वह इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता। (१९) उन्तीस प्रकार के पापसूत्रों के प्रसंगोंमें तथा तीस प्रकार
के महामोहनीय के स्थानों में जो भिक्षु-हमेशा उपयोग
रखता है वह इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता। (२०) इकत्तीस प्रकार के सिद्ध भगवान के गुणों में, बत्तीस
प्रकार के योग संग्रहों में तथा तेत्तीस प्रकार की असातनाओं में जो मिल सदैव उपयोग रखता है वह इस संसार
में परिभ्रमण नहीं करता। (२१) उपरोक्त सभी स्थानों में जो साधु सतत उपयोग रखता है
वह पंडित साधु इस संसार से शीघ्र ही मुक्त हो जाता है। टिप्पणी-संसार यह तो सद्बोध सीखने की पाठशाला है। इसका
प्रत्येक पदार्थ कुछ न कुछ नवीन पाठ देता ही रहता है। मान आवश्यकता है इस बात की कि आत्माका उपयोग उधर हो, दृष्टि उधर रहे । यदि हमारी दृष्टि में अमृत होगा तो जगत. में हमें सर्वत्र अमृत ही अमृत दिखाई देगा और हमें सर्वत्र अमृत ही की प्राप्ति होगी। यहां एक से लेकर तेतीस संख्या तक की भिन्न भिन्न वस्तुएं बताई हैं। उनमें से कुछ ग्राह्य है, कुछ त्याज्य हैं किन्तु उनका ज्ञान होने पर ही ये दोनों क्रियाएं हो सकती हैं। इसलिए यथार्थ दृष्टि से इन सबको जानने का प्रयत्न करना यह मुमुक्षु के लिये अत्यन्त आवश्यक है।
ऐसा मैं कहता हैइस प्रकार 'चरणविधि' नामक इकत्तीसवां अध्ययन समाप्त