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उत्तराध्ययन सूत्र
(३२) (१) गुरु आदि वड़े पुरुषों के सामने जाना, (२) उनके सामने दोनों हाथ जोड़ना, (३) श्रासन देना, (४) गुरुकी अनन्यभक्ति करना, तथा ( ५ ) हृदयपूर्वक सेवा करना--- इसे विनय तप कहते हैं ।
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टिप्पणी--अभिमान नष्ट हुए बिना सच्ची सेवा सुश्रूपा नहीं होती । (३३) श्राचार्यादि दस स्थानों की शक्त्यनुसार सेवा करना उसे वैयावृत्य तप कहते हैं ।
टिप्पणी- आचार्यादिनें इन १० का भी समावेश होता है: आचार्य उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, रोगिष्ट, सहाध्यायी, साधर्मी, कुल, गण, तथा संघ ।
(३४) (१) पढ़ना, (२) प्रश्नोत्तर करना, ( ३ ) पढ़े हुए का पुनः २ घोकना ( रटना ), (४) पठित पाठका उत्तरोत्तर गम्भीर विचार करना तथा (५) उसकी धर्मकथा कहना - ये ५ भेद स्वाध्याय तप के हैं ।
(३५) समाधिवंत साधक आर्त तथा रौद्र इन दोनों ध्यानों को शुकुध्यान का ही चिन्तवन करे
छोड़कर धर्मध्यान तथा
इसे महापुरुष व्यान तप कहते हैं । (३६) सोते, बैठते अथवा खड़े होते समय जो भिक्षु काया की अन्य सव प्रवृत्ति छोड़ देता है, शरीर को हिलाता डुलाता नहीं है उसे कायोत्सर्ग नामका तप कहते हैं ।
(३७) इस प्रकार दोनों प्रकार के तपों को यथार्थ समझकर जो मुनि श्राचरण करता है वह पंडित साधक सांसारिक समस्त बन्धनों से शीघ्र ही छूट जाता है । -