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________________ तपोमार्ग में भी मर्यादा करना (जैसे आजमैं घी योशकर का बना हुआ पदार्थ नहीं खाऊंगा,आज मैं मीठा या नमकीन नहीं खाऊँगा आदि) उसे रसपरित्याग नामकी तपश्चर्या कहते हैं। (२७) वीरासन (कुर्सी की तरह बैठ कर) आदि विविध आसन काया को अप्रमत्त रखने में (आत्मा के लिये) हित कर - हैं। ऐसे आसनों द्वारा अपनी काया को कसना उसे काय क्लेश नामका तप कहते हैं। (२८) एकान्त स्थान अथवा जहां कहीं भी ध्यानकी अनुकूलता हो, जहां कोई आता जाता न हो ऐसे स्त्री, पशु तथा नपुंसक से रहित स्थान में शयन करना तथा आसन जमाना-इसे संलीनता नामका तप कहते हैं। (२९) सुधर्मास्वामी जम्बूस्खामीसे बोलेः-हे जम्यू ! वायतप के भेद मैंने तुम्हें संक्षेप में कहे हैं। अब मैं तुम्हें अान्तरिक तपों के विषयमें कहता हूँ, तुम ध्यानपूर्वक सुनो। (३०) (१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (३) वैयावृत्य (सेवा), (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान, तथा (६) कायोसंग ये ६ आभ्यंतर तप हैं। (३१) भिक्षु आलोचनादि दस प्रकारके प्रायश्चित्त करता है उसे __प्रायश्चित्त तप कहते हैं। टिप्पणी-प्रायश्चित्त पापके छेदन करनेको कहते हैं, इसके दस प्रकार है-(१) आलोचना, (२) प्रतिक्रमण, (३) तदुभय, (४) विवेक, (५) म्युत्सर्ग, (६) तप, (७) वेद, (6) मूल, (९) उपस्थान, और (१०) पारक । इसका सविस्तविर वर्णन छेद सूत्रों में किया गया है।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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