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________________ तपोमार्ग: ३५७ वाडा ( बाड लगाया हुआ प्रदेश ), ( २५ ) शेरी (गलियाँ तथा ( २६ ) घर इतने प्रकार के क्षेत्रों में से भी अभिग्रह (मर्यादा ) करे कि मैं आज दो या तीन प्रकार के स्थानों में ही भिक्षार्थ जाऊँगा, अन्यत्र नहीं जाऊँगा - इसे क्षेत्र ऊणोदरी तप कहते हैं । 1 टिप्पणीः -- यद्यपि उपरोक्त क्षेत्र जैन भिक्षुओं के लिये कहे हैं परन्तु गृहस्थ साधक भी अपने क्षेत्र में इस प्रकार की क्षेत्र मर्यादा कर सकते हैं । (१९) ( १ ) सन्दूक के आकार में, (२) अर्ध-सन्दूक के आकार में, (३) गोमूत्र (टेढ़ेमेढ़े ) आकार में, (४) पतंग के आकार में, ( ५ ) शंखावृत के आकार में ( इसके भी दो भेद हैं ) ( १ ) गली में, (२) गली के बाहर, और ( ६ ) पहिले एक कोन से दूसरे कोन तक और फिर वहां से लौटते हुए भिक्षाचरी करे। इस तरह ६ प्रकार का क्षेत्र संबंधी ऊणोदरी तप होता है । टिप्पणी- उपरोक्त ६ प्रकार की भिक्षाचरी करने का नियम मात्र भिक्षुओं के लिये कहा गया है . (२०) दिवस के चार प्रहरों में से किसी अमुक प्रहर में ही भिक्षा मिलेगी तो लूँगा - ऐसा श्रभिग्रह (संकल्प) कर भिक्षाचरी करना उसे कालऊणोदरी तप कहते हैं । (२१) अथवा तीसरे प्रहर के कुछ पहिले अथवा तीसरे प्रहर के अंतिम चौथे भाग में ही यदि भिक्षाचरी मिलेगी तो ही मैं - " लूँगा - इस प्रकार का संकल्प करे तो वह भी कालऊगोदरी तप कहाता है ।" 1 4
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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