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उत्तराध्ययन सूत्र
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(३) तथा पांच समिति तथा तीन गुप्तिसहित, चार कपायों से.
रहित, जितेन्द्रिय, निरभिमानी तथा शल्यरहित जीव अना
सब होता है। (४) उपरोक्त गुणों से विपरीत दोषों द्वारा राग तथा द्वेष से संचित
किये हुए कर्म जिस विधि से नष्ट होते हैं उस विधि को एकान
मन से सुनो। (५) जैसे किसी बड़े तालाव का पानी, पानी पाने के मार्ग बंध
होने से तथा अंदर का पानी वाहर उलीचने से तथा सूर्य
के ताप द्वारा क्रमशः सुखाया जाता है, वैसे ही(६) संयमीपुरुष के नये पापकर्म भी व्रत द्वारा रोक दिये जाते
हैं और पहिले के करोड़ों जन्मों से संचित किया हुआ पाप
तपश्चर्या द्वारा भर जाता है। (७) वह तप बाह्य तथा आन्तरिक इस तरह दो प्रकार का होता
है। वाह्य तथा आन्तरिक इन दोनों तपों के ६-६ भेद
और हैं। (८)(बाह्य तप के भेद कहते हैं )-(१)अणसण (अनशन),
(२) उरणोदरी (ऊनोदरी) (३) भिक्षाचरी, (४) रसपरित्याग, (५) कायक्लेश, (६) संलीनता-इस
प्रकार बाह्य तप के ये ६ भेद हैं। (९)श्रणसण के भी दो भेद हैं--(१) सावधिक उपवास
अर्थात् अमुक मर्यादा तक अथवा नियत · काल तक. उपवास करना, (२) मृत्युपर्यंत का अणसण (अंतकाल तक सर्वथा निराहार रहना)। इसमें से . पहिले प्रकार में