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________________ सपोमार्ग - ; - शरीर अप्रमत्त तथा संयमी बनता है तभी आत्मा में जिज्ञासा जागृत होती है और तभी वह चिन्तन, मनन, योगाभ्यास, ध्यान आदि आत्मसाधना के अङ्गों में प्रवृत्त हो सकती है। इसीलिये बाह्य तपश्चर्या में (१) अंणसण (उपवास), (२) ऊणोदरी (अल्पाहार), (३) भिक्षाचरी (प्राप्त भोजन में से केवल परिमित आहार लेना), (४) रसपरित्याग (स्वा. देन्द्रिय का निग्रह), (५) कायक्लेश (देहदमन की क्रिया), और (६) वृत्ति संक्षेप (इच्छाएं घटाते जाना) इन ६ तपः श्चर्याओं का समावेश किया है। ये छहों तपश्चर्याएं अमृत के समान फलदायी हैं। उनका जिस २ दृष्टि से जितने प्रमाण में उपयोग होगा उतना २ पाप घटता जायगा और पाप घटने से धार्मिक भाव अवश्य ही बढ़ते ही जायगे। परन्तु इनका उपयोग अपनी शक्त्यनुसार होना चाहिये। आन्तरिक तपश्चर्यानों में (१) प्रायश्चित्त, (२), विनय, (३)-वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय,; (५), ध्यान, और (६) कायोत्सर्ग (देहाध्यास का त्याग) इन ६ गुणों का समावेश होता है। ये कहाँ साधन आत्मोन्नति की भिन्न,२ सीढ़ियां हैं। आत्मोन्नति के इच्छुक साधक इनके द्वारा बहुत कुछ आत्मसिद्धि कर सकते है। . . . . भगवान बोले- . (१) राग और द्वेष से संचित किये हुए पापकर्म को भिक्षु जिस तप द्वारा क्षय करता है उसका अब मैं उपदेश करता हूँ। - उसको तुम ध्यानपूर्वक सुनो। , , . (२) हिंसा, असत्य, अदत्त, मैथुन तथा परिग्रह इन पांच महा- पापोंतथा रात्रिभोजन से विरक्त जीवात्मा अनास्रव होता है। (अर्थात् आते हुए नये 'कों को रोकता है)। ।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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