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उत्तराध्ययन सूत्र
जनित कर्मों का वध नहीं करता तथा पूर्वसंचित कर्मों का भी क्षय कर देता है ।
(७०) शिष्य ने पूंछा - हे पूज्य ! लोभविजय से इस जीव को क्या लाभ है ?
गुरु ने कहा- हे भद्र ! लोभ को जीतने से यह जीव सन्तोष रूपी परमामृत की प्राप्ति करता है और ऐसा सन्तोषी नीव लोभजनित कमों का बंध नहीं करता तथा पूर्वसंचित कर्मों को भी खपा डालता है ।
(७१) शिष्य ने पूंछा: - हे पूज्य ! रागद्वेष तथा मिथ्यादर्शन के विजय से इस जीव को क्या लाभ है ?
गुरु ने कहा- हे भद्र ! रागद्वेप तथा मिध्यादर्शनविजय से सबसे पहिले वह जीव ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र की आराधना में उद्यमी बनता है और वाद में आठ प्रकार के कमों की गांठ से छूटने के लिये वह २८ प्रकार के मोहनीय कर्मों का क्रमपूर्वक तय करता है । इसके बाद ५ प्रकार के ज्ञानावरणीय कम, नौ प्रकार के दर्शनावरणीय कर्म तथा पाँच प्रकार के अन्तराय कर्म, इन तीनों कर्मों को एक ही साथ खपाता है । इन कर्म चतुष्टय को नाश कर लेने के बाद वह जीवात्मा श्रेष्ठ, संपूर्ण, श्राव रणरहित, अंधकाररहित, विशुद्ध तथा लोकालोक में प्रकाशित ऐसे केवलज्ञान तथा केवलदर्शन को प्राप्त होता है । केवलज्ञान प्राप्ति के बाद जब तक वह सयोगी( योग की प्रवृत्ति वाला) रहता है तब तक ईर्यापथिक