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________________ ३४४ उत्तराध्ययन सूत्र - - - -- गुरु ने कहा- हे भद्र ! श्रोत्रेन्द्रियनिग्रह करने से यह नीव सुन्दर असुन्दर शब्दों में रागद्वेपरहित होकर वर्तता है और ऐसा रागद्वेपनिवर्तित अणगार कर्मवंध से सर्वथा मुक्त रहता है तथा पूर्वसंचित कमों को भी खपा डालता है। (६३) शिष्य ने पूंछा-हे पूज्य ! चक्षुसंयम से जीव को क्या लाभ है ? गुरु ने कहा-हे भद्र! चक्षु ( आंख) संयम से यह जीव सुरूप किंवा कुरूप दृश्यों में रागद्वेपरहित हो जाता है और इस कारण रागद्वेपजनित कर्म बन्धों को नहीं बांधता और पहिले जो कर्मवन्ध किया है उसका भी क्षय कर देता है। (६४) शिप्य ने पूंचा-हे पूज्य ! ब्राणेन्द्रिय के निग्रह से जीव को क्या लाभ है? गुरु ने कहा-हे भद्र ! नाक का संयम करने से जीव सुवास किंवा कुवास के पदार्थों में रागद्वेपरहित होता है और इस कारण रागद्वेषजन्य कर्मों का बंध नहीं करता तथा पूर्वसंचित कमाँ के बंधनों को भी नष्ट कर देता है। (६५) शिष्य ने पूंछा-हे पूज्य ! रसना इन्द्रिय.का निग्रह करने से जीव को क्या लाभ है ? गुरु ने कहा-हे भद्र ! रसना ( जीभ ) के संयम से स्वादु किंवा अस्वादु रसों में यह जीव रागद्वेपरहित होता है और इससे रागद्वेषजन्य कमों का बंध नहीं करता तथा पूर्वसंचित कमों के बंधनों को भी नष्ट कर देता है।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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