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सम्यक्त्व पराक्रम
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रूपी अटवी में कभी दुःखी नहीं होता। जैसे डोरा (धागा) वाली सुई खोती नहीं है वैसे ही ज्ञानीजीव संसार में पथ भ्रष्ट नहीं होता और ज्ञान, चारित्र, तप तथा विनय के योग को प्राप्त होता है तथा स्व-पर दर्शन को बराबर जान
कर असत्य मार्ग में नहीं फंसता । (६०) शिष्य ने पूंछा-हे पूज्य ! दर्शनसंपन्नता से जीव को क्या
लाभ है ?
गुरु ने कहा-हे भद्र ! दर्शनसंपन्न जीव संसार के मूल कारण रूपी अज्ञान का नाश करता है। उसकी ज्ञानज्योति कभी नहीं बुमली और उस परम ज्योति में श्रेष्ठ ज्ञान तथा दर्शन द्वारा अपनी आत्मा को संयोजित
कर यह जीव सुन्दर भावनापूर्वक विचरता है । (६१) शिष्य ने पूंछा-हे पूज्य ! चारित्रसंपन्नता से जीव को क्या लाभ है ?
गुरु ने कहा- हे भद्र ! चारित्रसंपन्नता से यह जीव शैलेशी (मेरु जैसा निश्चल श्रद्धान ) भाव को उत्पन्न करता है और ऐसा निश्चल भाव प्राप्त अणगार अवशिष्ट चार कमों का आयकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर अनन्त शान्ति का उपभोग करता है और समस्त दुःखों का अन्त
कर देता है। (६२) शिष्य ने पूंला-हे पूज्य ! श्रोत्रेन्द्रियनिग्रह से जीव को क्या
लाभ है ? ,