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उत्तराध्ययन सूत्र
है तथा अपने अनेक गुणों से शोभित होता है। सेवाभक्ति के अपने अपूर्व साधन द्वारा वह मनुष्य तथा देवगति को प्राप्त करता है; मोक्ष तथा सद्गति के मार्ग (ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र) को विशुद्ध वनाता है अर्थात् विनय प्राप्त होते ही वह सर्व प्रशस्त कार्यों को साध लेता है और साथ ही साथ दूसरे जीवों को भी उसी मार्ग में
प्रेरित करता है। (५) शिष्य ने पूछा-हे पूज्य ! आलोचना करने से जीवास्मा को क्या फल मिलता है ?
गुरु ने कहा-हे भद्र ! आलोचना करने से जीवास्मा; माया, निदान तथा मिथ्यात्व ( असद् दृष्टि)-इन तीनों शल्यों को, जो मोक्षमार्ग में विनरूप हैं तथा संसार बंधन के कारण हैं उनको दूर करता है और ऐसा कर वह अलभ्य सरलता को प्राप्त कर लेता है। सरल जीवः, कपटरहित हो जाता है और इससे ऐसा (सरल) जीव स्त्रीवेद अथवा नपुंसकवेद का वंध नहीं करता और यदि कदाचित उनका पूर्व में बंध होचुका हो तो उसका भी
नाश कर डालता है। टिप्पणी-स्त्रीवेद अर्थात् वे कर्मप्रकृति जिनसे स्त्री का लिंग तथा
शरीर मिलता है। (६) शिष्य ने पूंठा-हे पूज्य ! आत्मनिंदा से जीव को क्या फल मिलता है?
गुरु ने कहा है भद्र ! आत्मदोषों की आलोचना फरने से पश्चात्तापरूपी भट्ठी सुलगती है और वह पञ्चा