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________________ सम्यक्त्व पराक्रम ३२५ इस कारण सब विषयों से विरक्त हो जाता है। सब विषयों से विरक्त हुआ वह समस्त आरम्भ (पापक्रिया) का परित्याग कर देता है। आरंभ का परित्याग कर वह भवपरंपरा का नाश क्रमपूर्वक कर डालता है और मोक्ष मार्ग पर गमन करता है। ( ३) शिष्य ने पूंछा-हे. पूज्य ! धर्मश्रद्धा, से जीव को क्या फ्ल प्राप्त होते हैं ? गुरु ने कहा:-हे भद्र ! धर्मश्रद्धा होने से सातावेदनीय ( कर्म से प्राप्त हुए) सुख मिलने पर भी वह उसमें लिप्त नहीं होता है और वह वैराग्यधर्म को प्राप्त होता है। वैराग्यधर्म को प्राप्त हुआ वह गृहस्थाश्रम को छोड़ देता है। गृहस्थाश्रम को छोड़ कर वह अणगार ( त्यागी) धर्म को धारण कर शारीरिक तथा मानसिक छेदन, भेदन, संयोग तथा वियोग जन्य दुःखों का नाश कर देता है (नूतन कर्मवंधन से निवृत्त होकर पूर्वकर्म का क्षय कर डालता है) और अव्याबाध (वाधारहित) मोक्षसुख को प्राप्त होता है। (४) शिष्य ने पूछा-हे पूज्य ! गुरुजन तथा साधर्मीजनों की सेवा करने से जीव को क्या फल प्राप्त होते हैं ? गुरु ने कहा-हे भद्र ! गुरुजन और साधर्मीयों की सेवा करने से सच्ची विनय (मोक्ष के मूल कारण) की प्राप्ति होती है। विनय की प्राप्ति से सम्यक्त्व को रोकनेवाले कारणों का नाश होता है और उसके द्वारा वह जीव नरक, पशु, मनुष्य, तथा देवगति सम्बन्धी दुर्गति को अटकाता है और जगत में वहुमान कीर्ति को प्राप्त होता
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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