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उत्तराध्यका सूत्र
उनको ग्रहण कर, उनका पालन कर, उनका शोधन, कीर्तन, तथा पाराधन करके तथा (जिनेश्वरों की ) याज्ञानुसार पालन कर बहुत से जीव सिद्ध, वुद्ध और मुक्त हुए हैं, परिनिर्वाण प्राप्त हुए हैं और उनने अपने सव दुःखों का अंत कर दिया है।
उसका यह अर्थ इस प्रकार क्रमसे कहा जाता है; यथाः(१) संवेग (मोक्षाभिलापा), (२) निर्वेद (वैराग्य), (३) धर्मश्रद्धा, (४) गुरुसार्मिकसुश्रूषणा (महापुरुषों तथा साधर्मियों की सेवा), (५) आलोचना (दोपों की विचारणा) (६) निन्दा (अपने दोपों की निन्दा), (७) गहीं (अपने दोषों का तिरस्कार), (८) सामायिक (आत्मभाव में लीन होने की क्रिया), (९) चतुर्विशतिस्तव (चौवीस तीर्थंकरों की स्तुति), (१०) चंदन, (११) प्रतिक्रमण (पाप का प्रायश्चित करनेकी क्रिया), (१२) कायोत्सर्ग, (१३) प्रत्याख्यान (त्याग की प्रतिक्षा करना), (१४)स्तवस्तुतिमंगल (गुणीजन की स्तुति), (१५) काल प्रतिलेखना (समय निरीक्षण), (१६) प्रायश्चित्तकरण (प्रायश्चित्त क्रिया)(१७) क्षमापना, (१८) स्वाध्याय, (१९) वांचन, (२०) प्रतिप्रच्छना, (प्रश्नोत्तर), (२१) परिवर्तना.(अभ्यास का पुनरावर्तन), (२२) अनुप्रेक्षा (पुनः २ मनन करना), (२३) धर्मकथा, (२४) शास्त्राराधना ( शानप्राप्ति), (२५) चित्त की एकाग्रता, (२६) संयम, (२७) तप, (२८) व्यवदान (कर्म का क्षय), (२६) सुखशाय (सन्तोप), (३०) अप्रतिवद्धता (अनासक्ति), (३१) एकांत प्रासन, शयन तथा स्थान का सेवन, (३२) विनिवर्तना (पाप कर्म से निवृत्त होना), (३३) संभोग प्रत्याख्यान (स्वावलम्बन), (३४) उपधि प्रत्याख्यान, (अनावश्यक वस्तुओं का त्याग अथवा वस, पात्र इत्यादि का