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ब्राह्मण ग्रंथों के कपिल के इतिहास से वाशों में मिलती जुलती है। बाइसवें अध्ययन में श्रीकृष्ण की कथा आई है वह भी अनेक दृष्टियों की अपेक्षा में आकर्षक है। किंतु जैन-धर्म के इतिहास के लिये उपयोगी वस्तु तो तेइसवें अध्ययन में है- पाश्र्श्वनाथ और महावीर के शिष्यों के संवाद का यह प्रसंग है और उस संवाद में से मूल पार्श्वप्रवृत्त जैन - प्रचार कैसा था और उसमें महावीर ने क्या २ सुधार किये उसका कुछ थोड़ासा ख्याल आता है । उत्तराध्ययन ( अध्ययन २५ ) का वस्तु तत्व ) धर्मपद के म सर्ग ( उदान ) के साथ बहुत कुछ मिलता जुलता है !! सच्चा ब्राह्मण किसे कहते हैं इस विषय के ऊपर इस अध्ययन कई एक बहुत ही सुंदर सूत्र कहे गये हैं । इस ग्रन्थ का ऐसा विषय संग्रह है ।
जैसा कि पहिले लिखा है, इस ग्रन्थ की अनेकानेक टीकाएं होचुकी है । और प्राचीन में प्राचीन टीकाएं भी इन मूलसूत्रों पर ही पाई जाती हैं इस परिस्थिति में उत्तराध्ययन की उक्त टीकाओं के विषय में कुछ. लिखना आवश्यक दिखाई देता है ।
सबसे प्राचीन टीका भद्रवाह की है जो 'निजुक्ति' के नाम से प्रसिद्ध है । यह टीका अन्य टीकाओं की अपेक्षा उपयोगी मानी जाती है क्योंकि उसमें जैन-धर्म सम्बन्धी प्राचीन जानकार की प्रभूतमात्रा में मिलती हैं । बाद की टीकाएं दसवीं शताब्दी में लिखी गई हैं, जिसमें शांतिसुरिका भाव विजय तथा देवेन्द्रगणि ( सन् १०७३ ) की टीका मुख्य गिनी जाता है । ये दोनों व्यक्ति जैन- शासन के अलंकाररूप थे और अपने समय के प्रखर के विद्वान् थे यही कारण है कि इनकी टीकाओं में जगह जगह शास्त्रार्थ एवं खंढन मन्दन की झलक दिखाई देती है ।
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भाषा शास्त्र की दृष्टि से देखने पर उत्तराध्ययन सूत्र की भाषा अति
प्राचीन ढंग की है। और जैनग्रामों के जिन सूत्रों में सब से प्राचीन
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