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समाचारी
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के लिये बाहर जाय । (२)नषेधिकी क्रिया उपाश्रय में आने के बाद करे अर्थात् अब मैं बाहर के कार्यों से निवृत्त होकर उपाश्रय में दाखल हुआ हूँ। अब नितान्त आवश्यक कार्य के सिवाय बाहर जाना निषिद्ध है-ऐसा मान कर आचरण करे। (३) आपृच्छना क्रिया का यह अर्थ है कि अपना कोई भी कार्य करने के लिये अपने गुरू अथवा बड़े साधु की आज्ञा प्राप्त करना । (४) प्रति
पृच्छना अर्थात् दूसरे के कार्य के लिये गुरूजी से पूंछना। टिप्पणी-पहिली तथा दूसरी क्रिया में किसी भी आवश्यक क्रिया के
सिवाय गुरूकुल न छोड़ने का विधान कर साधक की क्या जवाबदारी है उसकी तरफ इशारा किया है। तीसरे में विनय साधक का परम कर्तव्य है उस बात का, तथा चौथी में अन्य मुनियों की सेवा
तथा विचारों का ऊहापोह बताया है। (६) (५) पदार्थसमूहों में छन्दना, अर्थात् अपने साथ के • प्रत्येक भिक्षुको वस्तुओं का निमन्त्रण देना जैसे भिक्षादि लाने के बाद दूसरे मुनियों को आमन्त्रण करे कि "आप भी कृपा कर इसमें से कुछ प्रहण करें"-ऐसे व्यवहार को "छन्दना" कहते हैं । (६) इच्छाकार-अर्थात् एक दसरे की इच्छा जान कर तदनुकूल आचरण करना। (७) मिथ्याकार-अर्थात् भूल में या गफलत से अपने द्वारा कुछ त्रुटि हो जाय तो उसके लिये खूव पश्चात्ताप करना तथा प्रायश्चित्त लेकर उसको मिथ्या (निष्फल ) बनाने की क्रिया करना । (८) प्रतिश्रुते तथ्येतिकारयह उस क्रिया को कहते हैं कि जिसमें गुरूजन या बड़े