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उत्तराध्ययन सूत्र
हैं। इसलिये जीव अपने कर्म से ही ब्राह्मण, कर्म से ही क्षत्रिय, कर्म से ही वैश्य और कर्म से ही शूह होते हैं, जन्म के कारण नहीं । जैसे जो कोई कर्म करेगा - जैसी जिसकी क्रिया होगी तदनुसार ही उसकी जाति मानो जायगी । गुणों की न्यूनाधिकता से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा चांडाल आदि के भेद किये गये हैं ।
ब्रह्मचर्य, अहिंसा, व्याग तथा तपश्चर्यादि गुणों का ज्यों ज्यों विकास होता जाता है त्यो २ ब्राह्मणत्व का विकास होता जाता है । सच्चा ब्राह्मणत्व साधन कर ब्रह्म ( आत्मस्वरूप ) या आत्म ज्योति प्राप्त करना - यही सबका एकतम लक्ष्य है । जातिपांति के क्लेशों को छोड़ कर सच्चे ब्राह्मणस्त्र की भाराधना करना यही सबका कर्तव्य होना चाहिये ।
ऐसा मैं कहता हूँ
इस तरह 'यज्ञीय' नामक पच्चीसवां अध्ययन समाप्त हुआ ।